स्टार्टअप की ऐसी कहानियां जो बदल देंगी आपकी सोच

टार्टअप, साल 2016 में सबसे ज्यादा सुनाई देने वाले शब्दों में से एक। हालांकि इसकी व्याख्या भी अपने- अपने तरीके से की जाती रही है लेकिन स्टार्टअप का उद्यमिता, कारोबार में नवाचार और लघु उद्योग जैसे शब्दों से सीधा संबंध तो है ही। नए साल 2017 की शुरुआत के मौके पर ऐसी ही कहानियां जो स्टार्टअप के आसपास गुथी हुई हैं। इन कहानियों का केनवास न केवल तकनीक और यूनिक आइडिया है बल्कि वो जज्बा और संघर्ष भी है जो अभावों से लड़कर सफलता की कहानी लिखने की ताकत देता है।

बुनकर दादा के व्यवसाय का बदला ताना-बाना

भोपाल। पल्लवी मोहादेकर एमबीए हैं, चाहती तो बड़े पैकेज पर अच्छी जॉब मिल सकती थी। लेकिन उन्होंने अपने बुनकर दादा का व्यवसाय अपनाया ताकि बुनकरों को उनकी मेहनत की पूरी कीमत मिल सके। इसमें पल्लवी को साथ मिला आईआईटी पास राहुल गायकवाड़ का। राहुल ने एक मल्टीनेशनल कंपनी का जॉब छोड़ इस व्यवसाय को बढ़ाने के लिए इंडोफैश डॉट कॉम कंपनी बनाई।

राहुल और पल्लवी ने देशभर के बुनकरों से सीधे संपर्क किया ताकि उन्हें अपने काम के बदले सही दाम मिल सकें। आज केवल 8 महीने में कंपनी देश के कई राज्यों से जुड़ गई है। बुनकरों को पहले की अपेक्षा तीन गुना लाभ भी हो रहा है। 2017 में कंपनी चंदेरी, बाग और महेश्वर के बुनकरों को जोड़कर अपना सफर आगे बढ़ाने वाली है।

चुनौती -बुनकर व्यवसाय की तकनीक और उसके बाजार को समझना।

टर्निंग पाइंट – बुनकरों को भरोसे में लेकर उनको अपने साथ जोड़ना।

ड्रोन बनाकर कर रहे बचपन का सपना साकार

जबलपुर। ऊंचाई से जमीन के खूबसूरत नजारों को निहारना अतुल को बचपन से ही पसंद था। उन्हें अपने इस शौक को पूरा करने का भरपूर मौका भी मिल रहा है। अतुल के बनाए ड्रोन आज न केवल शादी समारोह में वीडियो शूटिंग के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं बल्कि कई बड़ी कंपनियों के कैम्पस में निगरानी रखने का भी काम कर रहे हैं।

ग्राहकों की मांग के मुताबिक अतुल 50 से ज्यादा ड्रोन बना चुके हैं। उनका इस्तेमाल जबलपुर के साथ-साथ राजस्थान और महाराष्ट्र के भी कई शहरों में हो रहा है। उप्र के उरई के रहने वाले अतुल ने जबलपुर के ट्रिपल आईटी डीएम से उच्च शिक्षा हासिल की। रोबोटिक्स और ऑटोमेशन पर अपना ध्यान लगाया। रोबो कृति के नाम से अपना व्यवसाय शुरू कर ड्रोन बनाना शुरू किया।

चुनौती – ड्रोन बनाने के लिए पार्ट्स जुटाना, विदेशों से बुलाना पड़ा

टर्निंग पाइंट – रोबोटिक्स और ऑटोमेशन ने राह की आसान

दस मिनट में मरीज तक दवा पहुंचाएगा ऐप

बिलासपुर। मौनिश जूते से लेकर कपड़े तक ऑनलाइन खरीदता था लेकिन जब उसे दवा की जरूरत पड़ी तो वह उसे ऑनलाइन नहीं मिली। बस यहीं से मौनिश के मन में यह बात बैठ गई कि दवा भी ऑनलाइन मिलनी चाहिए। उसने हाईपर लोकल हेल्थ सर्विस के जरिए मेडिक्लॉक ऐप तैयार कर लिया। गुरु घासीदास केंद्रीय विवि के छात्र मौनिश राजा के इस आइडिया को बेंगलुरू में आयोजित सर्जिकॉन्फ समिट में सातवां बेस्ट स्टार्टअप चुना गया।

इस आइडिया पर आधा दर्जन से अधिक कंपनियां और निवेशक शुरुआत में 40 लाख रुपए तक लगाने को तैयार हैं। ऐप में तीन विकल्प हैं। पहले में साधारण बीमारियों के लिए दवा की लिस्ट है। दूसरे विकल्प में डॉक्टरी पर्चा अनिवार्य है। तीसरे में रक्तदान और डॉक्टर से अपाइंटमेंट का विकल्प है।

चुनौती -दवाओं और बीमारियों के बारे में विस्तार से रिसर्च

टर्निंग पाइंट – सर्जिकॉन्फ समिट में सातवा बेस्ट स्टार्टअप चुना जाना

पहली बार में हुए नाकाम एमबीए कर बनाई कंपनी

ग्वालियर। अपनी कमजोरियों को मानना और उन्हें दूर कर फिर मैदान में उतर पड़ना एक विजेता की पहचान होती है। आशीष शर्मा ने भी कुछ ऐसा ही किया। उन्होंने बीएससी करते समय ही पूजा-पाठ संबंधी सामग्री घर-घर पहुंचाने के लिए वेबसाइट बनाई। विजिटर तो खूब मिले लेकिन खरीददार एक भी नहीं। लिहाजा एक साल में ही बंद हो गई। आशीष ने अपनी कमजोरियां दूर करने के लिए एमबीए करने का फैसला किया। दोस्त देवेश तिवारी के साथ शॉपिंग वेबसाइट किलरकार्ट डॉट कॉम शुरू की। पहले नो प्रॉफिट-नो लॉस पर काम किया और कंपनियों के प्रॉडक्ट ग्राहक तक मूल दाम पर पहुंचाए। आज इस वेबसाइट पर 15 हजार से अधिक प्रॉडक्ट उपलब्ध हैं। दो लाख रुपए से शुरू हुई इस साइट की कीमत आज 10 लाख पहुंच चुकी है।

चुनौती – एक वेबसाइट के असफल होने के बाद फिर उसी क्षेत्र में काम

टर्निंग पाइंट – मूल दाम पर ग्राहकों तक सामान पहुंचाकर ग्राहक जोड़े

महुआ से शराब नहीं बनता है संजीवनी लड्डू

कोरबा। एक ऐसा गांव, जो कभी महुआ की वजह से बर्बादी की कगार पर पहुंच गया था, आज उसी महुए की महक से फल-फूल रहा है। शहर से 25 किमी दूर स्थित आदिवासी बहुल ग्राम कोई की कुछ महिलाओं ने घर-घर बनने वाली शराब पर पाबंदी के लिए आवाज बुलंद की। ज्यादातर लोग इनके विरोध में खड़े हो गए लेकिन महिलाओं ने हार नहीं मानी। नई पहल की। जिस महुआ फूल से यहां के लगभग हर घर में शराब बनती थी, अब उससे संजीवनी लड्डू बनाए जाते हैं। यह पोषक तत्वों से भरपूर होता है।

इसे गर्भवती महिलाओं और कमजोर व्यक्तियों के लिए टॉनिक की तरह इस्तेमाल किया जाता है। बेंगलुरू से शुरू होकर लड्डुओं की ख्याति रायपुर, मथुरा व मुंबई तक पहुंच चुकी है। एक किलो लड्डू पर 40 से 50 रुपए का मुनाफा हो रहा है। यह मुनाफे का धंधा बन गया है। अब महिलाएं संजीवनी लड्डू को पूरी तरह हाईजीनिक ढंग से बनाने की प्रक्रिया सीखने की तैयारी कर रही हैं, ताकि बड़े पैमाने पर उत्पादन हो और गुणवत्ता भी बढ़े। इससे बाजार में मांग भी बढ़ेगी और फायदा भी ज्यादा होगा।

चुनौती – शराब माफिया को भगाना और लोगों की शराब की लत छुड़ाना

टर्निंग पाइंट – संजीवनी लड्डू की बेंगलुरु से बिक्री की शुरुआत

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